चमोली: आपदा के लिहाज से उत्तराखंड बेहद संवेदनशील राज्य है। कभी यहां धरती डोलने लगती है तो कभी भूस्खलन-हिमस्खलन तबाही मचाता है। उत्तराखंड कई बड़ी आपदाओं का गवाह बन चुका है, लेकिन विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कैसे बनाए रखना है, ये हम आज तक नहीं सीख पाए। चमोली में ग्लेशियर टूटने से मची तबाही के बाद विशेषज्ञों ने सरकार को एक बार फिर जलवायु खतरों को लेकर आगाह किया है। विशेषज्ञों ने कहा कि पहाड़ी इलाकों में विकास परियोजनाओं खासकर बांधों के निर्माण को लेकर सरकार को अपनी नीति पर फिर से विचार करने की जरूरत है। इसके पीछे कई कारण हैं। दरअसल हिमालय क्षेत्र में पांच हजार से ज्यादा ग्लेशियर हैं, जो ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते बेहद संवेदनशील हैं
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चमोली में हुई आपदा को लेकर हेस्को के प्रमुख डॉ. अनिल जोशी ने खरी बात कही है। उन्होंने कहा कि रैणी वही गांव है जहां से पांच दशक पूर्व पर्यावरण की रक्षा के लिए मशहूर चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी। लेकिन यह आपदा दर्शाती है कि पर्यावरण की सुरक्षा नहीं हुई। प्रदेश में जितनी भी बांध परियोजनाएं चल रही हैं, उनकी समीक्षा की जरूरत है। ग्लेशियर के मुहाने पर बांधों के निर्माण पर रोक लगाई जानी चाहिए। मौसम विशेषज्ञ आनंद शर्मा के मुताबिक मौसम में आ रहे बदलावों के कारण इस प्रकार की घटनाएं बढ़ रही हैं। महीने की शुरुआत में संबंधित क्षेत्र में भारी बर्फबारी हुई थी। जिससे कई फुट बर्फ जम गई। बाद में मौसम साफ होने से बर्फ पिघलनी शुरू हुई, जिससे ग्लेशियर के एक बड़े हिस्से में भूस्खलन हुआ।
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आईपीसीसी की रिपोर्ट तैयार करने में अहम भूमिका निभाने वाले जलवायु विशेषज्ञ डॉ. अंजल प्रकाश कहते हैं कि हिंदूकुश हिमालयन क्षेत्र में तापमान में बढ़ोतरी के कारण बर्फबारी के समय, पैटर्न और मात्रा में बदलाव आया है। यह आपदा भी इन्हीं प्रभावों की ओर संकेत कर रही है। ये जलवायु परिवर्तन से जुड़ी घटना है। आईआईटी इंदौर के प्रोफेसर डॉ. फारुख आजम ने कहा कि कई बार बर्फ पिघलने के कारण पानी ग्लेशियर के भीतर चला जाता है और भीतर झील बनने लगती हैं। ऐसी झील का पता नहीं चल पाता है। इस मामले में वास्तव में हुआ क्या, ये तभी पता चलेगा, जब वैज्ञानिकों की टीम संबंधित क्षेत्र का दौरा करेगी। ग्लेशियरों पर शोध कर रहे डॉ. फारुख के मुताबिक हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियर बेहद संवेदनशील हैं। इन पर शोध करने की जरूरत है।