चमोली: प्राकृतिक आपदा के लिहाज से उत्तराखंड बेहद संवेदनशील राज्य है। कभी भूकंप, कभी ग्लेशियर खिसकने तो कभी भूस्खलन की घटनाएं यहां आए-दिन सामने आती रहती हैं। इन दिनों पहाड़ में सिर्फ भूस्खलन की घटनाएं ही नहीं बढ़ रहीं, बल्कि ग्लेशियर में झीलों के बनने की घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं, जो कि आने वाले खतरे का संकेत है। वैज्ञानिकों ने इसे लेकर सजग रहने की हिदायत दी है। भू-वैज्ञानिकों के मुताबिक ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से उच्च हिमालयी क्षेत्र में छोटे-छोटे ग्लेशियर की संख्या कम हो रही है। ग्लेशियर के पीछे खिसकने से घाटियों व तेज ढलानों में करोड़ों टन मलबा जमा हो रहा है..भारी बारिश के दौरान ये मलबा क्षेत्र में तबाही ला सकता है। चमोली जिले में आई ऋषि गंगा की बाढ़ और हिमस्खलन का अध्ययन कर रहे हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विवि के भू वैज्ञानिक वाईपी सुंदरियाल ने ईटीवी से बातचीत में और भी कई बातें बताई हैं। उनका कहना है कि चमोली में आई तबाही का सीधा संबंध यहां जमे मलबे से था। घाटियों में बनी परियोजनाओं के कारण ऊंची पहाड़ियों पर तापमान में वृद्धि होती है, इससे खतरे बढ़ते हैं। आगे पढ़िए
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बता दें कि इसी साल सात फरवरी को चमोली जिले में ऋषि गंगा हिमखंड टूटने से बाढ़ आ गई थी। 23 अप्रैल को सुमना में हिमस्खलन हुआ। यहां ग्लेशियर पिघलने से 1200 ग्लेशियर झील बन गई हैं। ये खतरनाक नहीं हैं, बावजूद इसके ग्लेशियर लेक के टूटने का खतरा बना रहता है। इनके टूटने से मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा पैदा हो जाता है। पिछले 10 सालों में राज्य के भीतर तीन बड़ी घटनाएं घट चुकी हैं। पहला साल 2013 में केदारनाथ में आयी आपदा और साल 2017 में गंगोत्री में आयी आपदा के साथ ही 2021 में रैणी गांव में ग्लेशियर टूटने से फ्लड आया था। इन हादसों ने भारी तबाही मचाई। अगर समय-समय पर ग्लेशियर झीलों की देख-रेख की जाए तो झील से होने वाले खतरे को टाला जा सकता है। वैज्ञानिकों का साफ कहना है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बड़ी गतिविधियां नहीं होनी चाहिए। बड़ी परियोजनाएं शुरू करने से पूर्व शोध किया जाना चाहिए। यहां विकास कार्यों के दौरान ग्लोबल वॉर्मिंग को समझना भी जरूरी है।