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उत्तराखंड में छल ही छल- उपनल! पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार इन्द्रेश मैखुरी का ब्लॉग

यह किसी तरह की उपलब्धि नहीं बल्कि बेरोजगार युवाओं के श्रम के शोषण का उपक्रम है। पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार एवं एक्टिविस्ट इन्द्रेश मैखुरी का ब्लॉग

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Image: Indresh maikhuri blog about upnl (Source: Social Media)

देहरादून: सरकारी फैसलों और उनकी अखबारी खबरें देख कर ऐसा प्रतीत होता है,गोया सरकार ने कोई युगांतकारी कदम उठा दिया हो। हकीकत के धरातल पर उस घोषणा को परखने के बाद मालूम पड़ता है कि युगांत में जो “अंत” है,वही उस घोषणा की हकीकत है यानि घोषणा के साथ ही उसका अंत !
ऐसी एक घोषणा 04 सितंबर 2020 को उत्तराखंड सरकार के मंत्रिमंडल की बैठक से निर्णय के रूप में बाहर निकली है। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की अध्यक्षता में आयोजित मंत्रिमंडल की बैठक में फैसला लिया गया कि उपनल(उत्तराखंड पूर्व सैनिक कल्याण निगम) के जरिये होने वाली नियुक्तियां, अब पूर्व सैनिकों के अलावा अन्य अभ्यर्थियों के लिए खोली जाएंगी। पूर्व सैनिकों और उनके आश्रितों को चयन में प्राथमिकता दी जाएगी। अखबारों में छपे ब्यौरे के अनुसार सरकार ने यह कदम कोविड महामारी के चलते वापस लौटे प्रवासियों और अन्य लोगों को रोजगार देने के लिए उठाया गया है।
त्रिवेंद्र रावत जी के मंत्रिमंडल के इस फैसले के बारे में अखबारों की खबर को वैसे ही प्रस्तुत किया गया है,जैसे कुछ-कुछ महीनों पर उत्तराखंड में खबरों का शीर्षक होता है – उत्तराखंड में होगी बंपर भर्तियाँ ! सारे अखबारों को पढ़ने से ऐसा लगता है कि जैसे बाहर से वापस लौटे और अन्य बेरोजगारों के रोजगार तक पहुंचने की राह में एकमात्र बाधा-उपनल के जरिये नियुक्तियों का रास्ता केवल पूर्व सैनिकों और उनके आश्रितों को नौकरी देने की पाबंदी थी। चूंकि अब सरकार ने वह बाधा हटा दी है तो उत्तराखंड में रोजगार ही रोजगार है !
अरे जनाब, साफ-साफ क्यूँ नहीं कहते कि स्थायी रोजगार देने का कोई इरादा नहीं है।प्रदेश में छप्पन हजार पद रिक्त हैं,उन पर नियुक्ति नहीं करोगे ! पी।सी।एस। की भर्ती 2016 से नहीं हुई है,वह नहीं करवाओगे ! उपनल कोई लोकसेवा आयोग नहीं है,वह आउटसोर्सिंग एजेंसी है,जो ठेके पर सरकारी विभागों को कार्मिक मुहैया कराती है।और यह कोई पहला मौका नहीं है,जबकि उपनल के जरिये होने वाली नियुक्तियाँ पूर्व सैनिकों और उनके आश्रितों के अलावा अन्य लोगों को मिलेंगी। 2016 से पहले भी ऐसी स्थिति थी। और जब यह बंदिश भी हुई कि केवल पूर्व सैनिकों और उनके आश्रितों को उपनल द्वारा नियुक्त किया जाएगा तब भी यह छूट है ही किसी पद पर पूर्व सैनिकों और उनके आश्रितों में से योग्य अभ्यर्थी न मिलने पर अन्य की नियुक्ति की जा सकती है।

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अफसोस तो यह है कि पूर्व सैनिकों के कल्याण के नाम पर बना निगम,ठेके पर मजदूर सप्लाई करने की एजेंसी में तब्दील कर दिया गया है। पूर्व सैनिकों और उनके आश्रितों का भी वह, यही कल्याण करता है कि उन्हें ठेके पर विभिन्न विभागों में लगवा देता है,जहां वे काम तो स्थायी कार्मिकों वाला पूरा करते हैं पर भुगतान उनसे कई गुना कम पाते हैं और नौकरी की प्रकृति स्थायी होने के चलते, कभी भी बाहर किए जाने का खतरा उन पर मंडराता रहता है। यह सैन्य बाहुल्य प्रदेश में,जहां सैनिकों के नाम पर जम कर वोट दुहे जाते हैं,पूर्व सैनिकों और उनके आश्रितों के कल्याण का मॉडल है !
ऐसे समय में जब उत्तराखंड सरकार कोरोना महामारी के चलते, देश के अन्य हिस्से से वापस लौटे और अन्य युवाओं को उपनल के जरिये रोजगार का झुनझुना थमा रही है,तब यह जानना समीचीन होगा कि जो पहले से उपनल के जरिये नियुक्त हैं,उनकी क्या स्थिति है,उनके बारे में उत्तराखंड सरकार का क्या दृष्टिकोण है।
2004 में पूर्व सैनिकों के कल्याण के नाम पर गठित उपनल के जरिये इस समय प्रदेश में विभिन्न विभाग में 20794 पूर्व सैनिक और उनके आश्रित नियुक्त हैं। इस कोरोना काल में ही जब “कोरोना वारियर्स” नाम का खूब जाप किया जाता रहा,उसी के बीच, एक अन्य सरकारी जुमले “आपदा में अवसर” का इस्तेमाल करते हुए करीब 500 उपनल कर्मियों की सेवाएँ समाप्त कर दी गयी !
2018 में उच्च न्यायालय नैनीताल में कुंदन सिंह बनाम उत्तराखंड सरकार के मामले में, उत्तराखंड सरकार ने उच्च न्यायालय को बताया कि 20 सितंबर 2018 को मंत्रिमंडल की बैठक में चर्चा के उपरांत यह तय किया कि उपनल कर्मियों का मामला उच्चतम न्यायालय के “कर्नाटक राज्य बनाम उमा देवी” के दायरे में आता है,इसलिए उनका नियमितीकरण नहीं किया जा सकता। जब दशकों से उपनल के जरिये नियुक्त पुराने कर्मचारियों का नियमितीकरण नहीं करने का फैसला दो साल पहले ले चुके हैं तो नयों को, यह नियुक्ति का झुनझुना क्यूँ थमा रहे हैं,त्रिवेंद्र रावत जी ? क्या इसलिए कि वे भी सालों-साल ठेके के मजदूर बने रहें ? हालांकि उच्च न्यायालय नैनीताल की न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति शरद कुमार शर्मा की खंडपीठ ने उक्त मामले में कहा था कि उत्तराखंड सरकार का उपनल कर्मियों के मामले में “कर्नाटक राज्य बनाम उमा देवी” के फैसले को उद्धरित करना अनुचित है। न्यायालय ने तो यह भी कहा था कि उपनल तो सरकार को ज़िम्मेदारी से बचाने का पर्दा है। पर्दे के पीछे असली नियोक्ता तो उत्तराखंड सरकार ही है। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि राज्य सरकार को उपनल जैसी एजेंसी के जरिये नियुक्ति करने के बजाय लोकसेवा आयोग और कर्मचारी चयन बोर्ड के जरिये नियुक्तियां करनी चाहिए।

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उक्त मामले में ही राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय को बताया था कि उपनल कर्मियों को 8400 रुपया मासिक मानदेय मिलता है,उन्हें कोई मंहगाई भत्ता नहीं दिया जाता। अगस्त 2020 में उत्तराखंड शासन ने उपनल कर्मियों के मानदेय में वृद्धि का फैसला लिया। वह मानदेय वृद्धि भी बहुत अधिक नहीं है। लेकिन 2।5 प्रतिशत सेवा शुल्क और 18 प्रतिशत जीएसटी की कटौती के साथ तो यह मानदेय वृद्धि ऊंट के मुंह में जीरे के समान हो गयी। गौरतलब है कि उपनल कर्मियों से जीएसटी या सेवा शुल्क काटे जाने को उच्च न्यायालय ने गलत ठहराया था।
उक्त मामले में उच्च न्यायालय ने उत्तराखंड सरकार को निर्देश दिया था कि उपनल कर्मियों को पे स्केल और मंहगाई भत्ता दिया जाये। साथ ही न्यायालय ने निर्देशित किया था कि उत्तराखंड सरकार चरणबद्ध तरीके से एक वर्ष के भीतर उपनल के जरिये नियुक्त कर्मचारियों का नियमितीकरण करे। होना तो यह चाहिए था कि उच्च न्यायालय का उक्त आदेश मिलने के बाद उत्तराखंड सरकार,उपनल के जरिये नियुक्त कर्मचारियों के नियमितीकरण की प्रक्रिया शुरू करती पर सरकार ने ऐसा नहीं किया। उच्च न्यायालय के उक्त आदेश को मानने के बजाय उत्तराखंड सरकार उच्चतम न्यायालय से स्टे लेकर आ गयी।
उपनल कर्मचारी संघ के अध्यक्ष रमेश शर्मा और महामंत्री मनोज जोशी ने सरकार से उच्चतम न्यायालय में उपनल कर्मियों के पक्ष में उचित पैरवी करने की गुहार लगाई है पर सरकार को उपनल कर्मचारियों के पक्ष में ही खड़े होना होता तो वह सुप्रीम कोर्ट जाती ही क्यूँ ?
जो सरकार, उपनल के जरिये नियुक्त कर्मचारियों को नियमित करने के उच्च न्यायालय के आदेश का अनुपालन करने के बजाय उच्चतम न्यायालय से स्टे लेकर आ गयी,अदालत में उपनल कर्मियों के नियमितिकरण के विरुद्ध मुकदमा लड़ रही है,वही सरकार प्रदेश की जनता को बता रही है कि उपनल के जरिये सबको नौकरी देने का फैसला एक बड़ी उपलब्धि है !
यह किसी तरह की उपलब्धि नहीं बल्कि बेरोजगार युवाओं के श्रम के शोषण का उपक्रम है,जहां बरसों-बरस मामूली मानदेय पर अनियमित,अस्थायी नौकरी ही उनके हाथ आनी है !