उत्तराखंड देहरादूनIndresh Maikhuri blog on Uttarakhand Land Law

उत्तराखंड मांगे भू कानून, हमारे प्रदेश और बाकी प्रदेशों में बड़ा फर्क है..पढ़िए इंद्रेश मैखुरी का ब्लॉग

वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार इन्द्रश मैखुरी का ये ब्लॉग भले ही पुराना है, लेकिन आज आपको एक बार फिर से पढ़ लेना चाहिए

Uttarakhand Land Law: Indresh Maikhuri blog on Uttarakhand Land Law
Image: Indresh Maikhuri blog on Uttarakhand Land Law (Source: Social Media)

देहरादून: उत्तराखंड में भाजपा की डबल इंजन की सरकार का यदि किसी बात पर सर्वाधिक ज़ोर नज़र आ रहा है तो वह है, ज़मीनों की बिक्री को सुगम बनाने में. ज़मीनों की बिक्री सुगम-सरल और खुली हो सके
जमीन खरीद-बिक्री के कानून को बदलने के लिए सरकार कितनी उद्यत है,इसका अंदाज लगाने के लिए सरकार द्वारा कानून में किए गए बदलाव के घटनाक्रम को देखिये. 06अक्टूबर 2018 को उत्तराखंड सरकार भू कानून को बदलने के लिए अध्यादेश ले कर आई. फिर 06 दिसंबर 2018 को भू कानून में बदलाव का संशोधन विधेयक,विधानसभा के शीतकालीन सत्र में पारित करवाया गया. 04 जून 2019 को मंत्रिमंडल की बैठक में फैसला लिया गया कि उत्तराखंड के मैदानी जिलों-देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंह नगर में भूमि की हदबंदी(सीलिंग) खत्म कर दी जाएगी. इन जिलों में भी तय सीमा से अधिक भूमि खरीदी या बेची जा सकेगी. इसके लिए सरकार ने अध्यादेश लाने का ऐलान भी किया.
आइये,अब यह समझ लेते हैं कि उत्तराखंड सरकार जमीन के क़ानूनों में कैसा फेरबदल कर रही है. इसके लिए उत्तराखंड की विधानसभा में सरकार द्वारा पास करवाए गए संशोधन अधिनियम पर चर्चा करना समीचीन होगा.
04-06 दिसंबर 2018 को उत्तराखंड की विधानसभा के शीतकालीन सत्र हुआ. इस सत्र में उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम,1950 में संशोधन का विधेयक पारित करवाया. इस संशोधन के तहत उक्त विधेयक में धारा 143(क) जोड़ कर यह प्रावधान किया गया कि औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमिधर स्वयं भूमि बेचे या फिर उससे कोई भूमि क्रय करे तो इस भूमि को अकृषि करवाने के लिए अलग से कोई प्रक्रिया नहीं अपनानी पड़ेगी. औद्योगिक प्रयोजन के लिए खरीदे जाते ही उसका भू उपयोग स्वतः बादल जाएगा और वह -अकृषि या गैर कृषि हो जाएगा.
इसके साथ ही उक्त अधिनियम में धारा 154(2) जोड़ी गयी. उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950 के अनुसार बाहरी व्यक्ति साढ़े बारह एकड़ जमीन खरीद सकता है. उत्तराखंड में 2002 में बाहरी व्यक्तियों के लिए भूमि खरीद की सीमा 500 वर्ग मीटर की गयी और फिर 2007 में यह सीमा 250 वर्ग मीटर कर दी गयी. उत्तराखंड सरकार द्वारा विधानसभा में पारित करवाए गए अधिनियम के बाद पर्वतीय क्षेत्रों में,भूमि खरीद की इस सीमा को औद्योगिक प्रयोजन के लिए पूरी तरह खत्म कर दिया गया.इस तरह से पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि भूमि की बेहिसाब खरीद का रास्ता सरकार ने इस अधिनियम को पारित करवा कर खोल दिया है. इस संदर्भ में यह भी गौरतलब है कि इतना महत्वपूर्ण विधेयक,विधानसभा में सरकार द्वारा बिना किसी चर्चा के ही पारित करवाने की कोशिश की गयी. इस मामले में केदारनाथ के विधायक मनोज रावत ही एकमात्र विधायक थे,जिन्होंने विधानसभा में इस विधेयक को पहाड़ में ज़मीनों की खुली लूट करने वाला विधेयक करार दिया. मनोज रावत तो यहाँ तक आरोप लगाते हैं कि उक्त विधेयक की प्रति विपक्षी विधायकों को उपलब्ध ही नहीं कारवाई गयी. प्रति केवल नेता प्रतिपक्ष को दी गयी. बिना विधायकों को विधेयक की प्रति दिये,बिना विधानसभा में चर्चा के यदि उत्तराखंड सरकार को ज़मीनों की खुली बिक्री का कानून पास करवाना चाहती थी तो यह उसके इरादों के प्रति संदेह ही पैदा करता है. आगे पढ़िए

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उत्तराखंड में कृषि भूमि का रकबा निरंतर घट रहा है. अखिल भारतीय किसान महासभा द्वारा उत्तराखंड के कृषि परिदृश्य पर जारी पुस्तिका में कहा गया है कि उत्तराखंड में कृषि भूमि का रकबा अब केवल 9 प्रतिशत के आसपास रह गया है. लेकिन उत्तराखंड की सरकार की चिंता में पर्वतीय कृषि तो कम से कम नहीं है. इसलिए पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि भूमि की निर्बाद्ध बिक्री का कानून सरकार द्वारा पास कर दिया गया.
इस संदर्भ में यह भी जान लेते हैं कि देश के अन्य राज्यों,खास तौर पर पर्वतीय राज्यों में में भी,क्या इस तरह जमीन की बेरोकटोक,असीमित बिक्री के कानून हैं?
उत्तराखंड का पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश है,जहां कानूनी प्रावधानों के चलते कृषि भूमि की खरीद लगभग नामुमकिन है. हिमाचल प्रदेश टिनैन्सी एंड लैंड रिफार्म एक्ट 1972 की धारा 118 में प्रावधान है कि कोई भी जमीन,जो कि कृषि भूमि को किसी गैर कृषि कार्य के लिए नहीं बेची जा सकती. धोखे से यदि बेच दी जाये तो जांच के उपरांत यह जमीन सरकार में निहित हो जाएगा.
जमीन,मकान के लिए भूमि खरीदने के लिए सीमा निर्धारित है और यह भी प्रावधान है कि जिससे जमीन खरीदी जाये, वह जमीन बेचने के कारण आवासविहीन या भूमिविहीन नहीं होना चाहिए.
एक अन्य पहाड़ी राज्य-सिक्किम में भी भूमि की बेरोकटोक बिक्री पर रोक के लिए कानून,बीते वर्ष ही बना है. सिक्किम के कानून- दि सिक्किम रेग्युलेशन ऑफ ट्रान्सफर ऑफ लैंड(एमेंडमेंट) एक्ट 2018 की धारा 3(क) में यह प्रावधान है कि लिम्बू या तमांग समुदाय के व्यक्ति अपनी जमीन किसी अन्य समुदाय को नहीं बेच सकते. जमीन अपने समुदाय के भीतर बेची जा सकती है पर कम से कम तीन एकड़ जमीन व्यक्ति को अपने पास रखनी होगी. केंद्र द्वारा अधिसूचित ओबीसी को 3 एकड़ जमीन अपने पास रखनी होगी. राज्य द्वारा अधिसूचित ओबीसी को 10 एकड़ जमीन अपने पास रखनी होगी.
मेघालय का कानून भी भूमि बिक्री पर पाबंदी लगता है. दि मेघालय ट्रान्सफर ऑफ लैंड(रेगुलेशन)एक्ट 1971 कहता है,कोई भी जमीन आदिवासी द्वारा गैर आदिवासी को या गैर आदिवासी द्वारा अन्य गैर आदिवासी को सक्षम प्राधिकारी की अनुमति के बिना हस्तांतरित नहीं की जा सकती.सक्षम प्राधिकारी गैर आदिवासी को जमीन खरीदने की अनुमति देने में यह ख्याल रखेगा कि इस व्यक्ति को यहाँ रहने के लिए यह जमीन आवश्यक है या नहीं. अनुमति देने वाला सक्षम प्राधिकारी यह भी ध्यान रखेगा कि जिस इलाके में गैर आदिवासी जमीन खरीद रहा है,उस इलाके के जनजाति के लोगों का आर्थिक हित इसके जमीन खरीदने से होगा या नहीं,जनजाति के लोगों को शिक्षा में, उद्योग में अधिक अवसर मिलें,जमीन बेचने की अनुमति देने में इसका ख्याल रखा जाएगा.

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इस तरह देखें तो देश के किसी भी प्रदेश में ज़मीनों की बेरोकटोक बिक्री का कानून नहीं है. हर राज्य ने अपनी स्थानीय स्थितियों के अनुरूप ज़मीनों की बिक्री पर कुछ न कुछ पाबन्दियाँ लगाई हैं. उत्तराखंड एकमात्र ऐसा राज्य है,जहां सरकार ने जमीन की बिक्री पर किसी भी तरह से रोक लगाने वाले कानूनों को खत्म कर दिया है.
जिस समय उत्तराखंड की विधानसभा में पर्वतीय क्षेत्रों की बेरोकटोक बिक्री का कानून पास हो रहा था तो नेता प्रतिपक्ष डा. इन्दिरा हृदयेश ने उस पर केवल इतना ही पूछा कि यह कानून मैदानी इलाकों पर लागू क्यूँ नहीं है. 04 जून को मंत्रिमंडल द्वारा मैदानी इलाकों में भी भूमि खरीद की सीलिंग खत्म कर सरकार ने लगता है कि नेता प्रतिपक्ष की तम्मना पूरी कर दी है !
पर प्रश्न यह है कि आखिर ऐसी क्या आफत आन पड़ी कि उत्तराखंड सरकार जमीन के कानून में संशोधन पर संशोधन किए जा रही है ?इसके पीछे भाजपा सरकार का वही रटा-रटाया तर्क है कि पूंजी निवेश के लिए भूमि खरीद संबंधी कानून बदले जा रहे हैं. इसकी शुरुआत हुई देहरादून में 07-08 अक्टूबर को हुए इन्वेस्टर्स मीट से. इस इन्वेस्टर्स मीट के लिए ही उत्तराखंड सरकार भू कानून में बदलाव का अध्यादेश लायी और फिर विधानसभा में विधेयक ले कर आई. पूंजी निवेश का आंकड़ा भी बड़ा रोचक है. जिस समय इन्वेस्टर्स मीट हुआ,उस समय सरकार की ओर से ऐलान किया गया कि 1 लाख 20 हजार करोड़ रुपये के निवेश के लिए एम.ओ.यू.(मेमोरैंडम ऑफ अण्डरस्टैंडिंग) यानि सहमति पत्रों पर दस्तखत हो चुके हैं. 04 जून 2019 को मंत्रिमंडल की बैठक में फैसला लिया गया कि उत्तराखंड के मैदानी जिलों-देहरादून,हरिद्वार,उधमसिंह नगर में भूमि की हदबंदी(सीलिंग) खत्म करने की घोषणा के तर्क के तौर पर फिर निवेशकों के लिए जमीन की खरीद सुगम करना बताया गया. इसके साथ ही समाचार पत्रों में सरकार के हवाले से कहा गया कि अब तक निवेशक सरकार के साथ 1 लाख 24 हजार करोड़ रुपए के एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर कर चुके हैं. यानि अक्टूबर 2018 से लेकर जून 2019 तक एम.ओ.यू. की रकम का आंकड़ा लगभग वहीं का वहीं खड़ा है,जबकि इस बीच प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में तो जमीनों की बेरोकटोक खरीद का कानून भी पास हुए 6 महीने हो चुके हैं. जिस निवेश के नाम पर ज़मीनों की खुली बिक्री के कानूनों को उचित ठहराने की कोशिश की जा रही है,अगर वह भी नहीं हो रहा है तो प्रश्न यह है कि ये ज़मीनों की खुली बिक्री के कानून बना कर सरकार किसका हित साधना चाहती है ? कहीं ज़मीनों की खुली, बेरोकटोक बिक्री जमीन के सौदागरों और बड़े भू भक्षियों के चाँदी काटने की राह आसान करने के लिए तो नहीं है ?