चमोली: साल 1942 का वो दिन जिसने देश दुनिया के तमाम शोधकर्ताओं को हैरत में डाल दिया...पहेली ऐसी जिसे आज तक पूरी तरह से कोई भी नहीं सुलझा पाया है। साल 1942 में चमोली जिले में स्थित रूपकुंड झील में रेंजर हरिकिशन मधवाल ने जो दृश्य देखा उसने उनके रोंगटे खड़े कर दिए...सैकड़ों नरकंकाल रुपकुंड झील के अंदर से झांक रहे थे...और कितने ही झील के आसपास बिखरे पड़े थे..ये पहली दफा था जब किसी ने इस झील के अंदर छुपे इस रहस्य को जाना था..तब से लेकर आजतक न जाने कितने शोधकर्ता यहां पहुंचे हैं लेकिन आज तक रूपकुंड के अंदर मौजूद नरकंकालों के इस रहस्य से पूरी तरह से पर्दा नहीं उठ पाया है। कोई ये नहीं बता पाया है कि आखिरकार यहां क्या हुआ था...हैरानी इसलिए भी होती है क्योंकि रूपकुंड तक पहुंचने का रास्ता बेहद मुश्किल है...ऐसे में इतनी बड़ी संख्या में लोगों की यहां मौत कैसे हुई...इसको लेकर कई अनुमान हैं तो आइए आज रुपकुंड की इसी रहस्यमयी लेकिन सत्य कहानी को आपके सामने रखते हैं।
रुपकुंड का पौराणिक पहलू
धर्म के जानकारों के मुताबिक एक बार भगवान शिव और माता पार्वती इस रास्ते से कैलाश पर्वत जा रहे थे, इस यात्रा को शुरू करने से पहले माता पार्वती ने राक्षसों का वध किया था इसलिए वो स्नान करना चाहती थीं..लेकिन इस जगह पर कोई नदी या पानी नहीं होने की वजह से भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से बर्फ में एक बड़ा गड्ढ़ा कर दिया इसका पानी इतना साफ था कि माता पार्वती को इसमें अपना अक्स दिखाई दिया था..बस यहीं से इस कुंड का नाम रूपकुंड़ पड़ा। आगे पढ़िए रूपकुंड में नरकंकाल कहां से आए?
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रुपकुंड में कहां से आए नरकंकाल ?
रूपकुंड में मौजूद नरकंकालों को लेकर कई कहानियां हैं जिसमें से एक प्रचलित कहानी है कन्नौज के राजा जासिधवाल और उनकी गर्भवती रानी की। कहते हैं कि एक बार ये राजा और रानी अपना पूरा लाव लश्कर लेकर यहां यात्रा करने पहुंचे। इनके साथ इनके मनोरंजन के लिए नाच गाने वाले तमाम लोग भी मौजूद थे..रानी ने इसी यात्रा के दौरान बच्चे को भी जन्म दिया। माना जाता है कि इसी बात से मां नंदा उनसे इतनी नाराज़ हुईं कि वहां भयानक ओलावृष्टि होने लगी जो उनकी मौत का कारण बनी और ये नरकंकाल उन्हीं लोगों के हैं। इसका जिक्र स्थानीय गीतों में भी मिलता है।
क्या कहती हैं हालिया स्टडीज ?
रुपकुंड के इस रहस्य को सुलझाने के लिए लगातार शोध हो रहे हैं...सबसे चौंकाने वाली बात जो सामने आई है वो ये कि यहां मौजूद नरकंकाल किसी एक त्रासदी का शिकार हुए लोगों के नहीं हैं..बल्कि अलग अलग समय में ये दुर्घटनाएं हुई हैं जिनके बीच का अंतराल 1000 साल के करीब है।
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इंडिया टुडे में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़ लोगों का मानना था कि ये अस्थियां कश्मीर के जनरल जोरावर सिंह और उनके आदमियों की हैं. जो 1841 में तिब्बत के युद्ध से लौट रहे थे. 1942 में पहली बार एक ब्रिटिश फॉरेस्ट गार्ड को ये कंकाल दिखे थे. उस समय ये माना गया था कि ये जापानी सैनिकों के कंकाल हैं जो द्वितीय विश्व युद्ध में वहां के रास्ते जा रहे थे और वहीं फंस कर रह गए। ये सभी कंकाल एक साथ एक समय पर वहां इकठ्ठा नहीं हुए। जो भारत और आस-पास के इलाकों वाले कंकाल हैं, वो सातवीं से दसवीं शताब्दी के बीच वहां पहुंचे थे. और जो ग्रीस और आस-पास के इलाके वाले कंकाल हैं, वो सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी के बीच वहां पहुंचे। इन कंकालों की कार्बन डेटिंग के जरिए इनके वंश की जानकारी निकाली गई..जिससे ये पता लगा कि इन कंकालों में से पहले समूह के लोगों का संबंध भारत से ही है...लेकिन दूसरे समूह के लोगों का संबंध पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के सबसे करीब है..खासकर ग्रीस।इ न कंकालों की वंशावली भले ही अलग अलग हो लेकिन इन सबकी मौत सिर पर किसी भारी चीज़ के टकराने से ही हुई है।अब अलग अलग समय में हुई इन मौतों की एक ही वजह रुपकुंड के इस रहस्य को और गहरा देती है...इतने शोधों के बाद भी लगता नहीं है कि ये कुंड इस रहस्य को इतनी आसानी से बाहर आने देगा।