उत्तराखंड Story of vishweshwar dutt saklani

देवभूमि का ‘ट्री मैन’...8 साल की उम्र से शुरू किया, 96 की उम्र तक लगाए 50 लाख पौधे

कहानी उस महान शख्सियत की...जो अब हमारी बीच नहीं रहे। उस शख्स ने ऐसा काम किया है, शायद जो काम आप जिंदगी भर ना कर पाएं। हमारी तरफ से श्रद्धांजलि

उत्तराखंड: Story of vishweshwar dutt saklani
Image: Story of vishweshwar dutt saklani (Source: Social Media)

: पहाड़ के वृक्ष मानव, जो अब हमारे बीच नहीं रहे लेकिन वो अपनी ज़िंदगी में कुछ ऐसे काम कर गए जो इंसान और पर्यावरण के बीच सच्चे रिश्ते की सीख देेते हैं। वास्तव में उत्तराखंड की धरती पर कुछ ऐसे लोग जन्मे हैं, जिन्होंने अपने कामों से नई मिसाल कायम की और आने वाली पीढ़ी को बड़ा संदेश भी दे गए। ऐसे ही थए विश्वेश्वर दत्त सकलानी। वो आठ साल के थे, जब उन्‍होंने पहला पौधा रोपा था। बाद में वो अपने भाई, अपनी पत्‍नी की मौत का दुख सहने के लिए पौधे रोपने लगे। शुक्रवार (18 जनवरी) को 96 साल के ‘वृक्ष मानव’ के रूप में पहचाने जाने वाले सकलानी का निधन हो गया। उनका जन्म टिहरी जिले के सत्यों के पास पुजार गांव में 2 जून 1922 को हुआ था। परिवार का अनुमान है कि उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी में अकेले टिहरी-गढ़वाल में करीब 50 लाख पेड़ लगाए होंगे।

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आपको बता दें कि 1986 में तत्‍कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने विश्वेश्वर दत्त सकलानी को इंदिरा प्रियदर्शिनी अवार्ड से सम्‍मानित किया था। उनके बेटे संतोष स्‍वरूप सकलानी राज भवन में राज्‍यपाल के प्रोटोकॉल अधिकारी के रूप में तैनात हैं। उन्होंने द इंडियन एक्‍सप्रेस से कहा, “पिताजी ने करीब 10 साल पहले देखने की शक्ति खो दी थी। पौधे रोपने से धूल और कीचड़ आंखों में जाता था, जिससे उन्‍हें परेशानी होने लगी थी। छोटे बच्‍चे थे, तब से उन्‍होंने पौधे रोपना शुरू किया था।” विश्वेश्वर दत्त सकलानी अपने पीछे 4 बेटों और 5 बेटियों का भरा पूरा परिवार छोड़ गए हैं। कहा जाता है कि जब उनके भाई का निधन हुआ तो वो कई घंटे तक घर से गायब रहते थे। इस दौरान वो पूरा दिन पौधे लगाने में बिताते थे। यहां से उनके और वृक्षों के बीच एक अटूट रिश्ता शुरू हुआ था।

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स्वर्गीय विश्वेश्वर दत्त सकलानी के बेटे संतोष के मुताबिक “1958 में जब हमारी मां गुजरी, तो ये दूसरी ऐसी घटना थी जिसके बाद हमने उन्‍हें पेड़ों के और नजदीक पाया।” स्वर्गीय सकलानी का काम अपने जिले तक भले ही सीमित रहा हो, लेकिन जिस सूरजगांव के आस-पास उन्‍होंने एक घना जंगल बनाया, वो अब उतनी ही तेजी से गायब हो रहा है। संतोष ने मीडिया को बताया कि “दुर्भाग्‍य से, जंगल का बड़ा हिस्‍सा बीते कुछ सालों में खत्‍म हो गया है क्‍योंकि लोगों को दूसरे कामों के लिए जगह चाहिए।” संतोष के मुताबिक, उनके पिता की आत्‍मा उन्‍हीं जंगलों में रहती है, जिन्‍हें उन्होंने अपने हाथों से पाला-पोसा। बकौल संतोष, “पिताजी अक्‍सर कहते थे कि उनके नौ नहीं, 50 लाख बच्‍चे हैं। मैं अब उन्‍हें जंगलों में तलाशा करूंगा।” धन्य हैं ऐसी पुण्यात्मा, जिन्होंने अपना जीवन पर्यावरण के नाम किया।