उत्तराखंड STORY OF UTTARKASHI WOMEN SAVITRI SEMWAL

पहाड़ के छमरोठा गांव की सावित्री...अमेरिका के 4 बड़े शहरों में बनी सेलेब्रिटी, सभी ने किया सलाम

छोटे पहाड़ी गांव में रहने वाली सावित्री, जिसने कभी शहर देखे तक नहीं थे, वो आज अमेरिका में सेलिब्रेटी बन गई है...चलिए जानते हैं उनकी कहानी.

उत्तराखंड: STORY OF UTTARKASHI WOMEN SAVITRI SEMWAL
Image: STORY OF UTTARKASHI WOMEN SAVITRI SEMWAL (Source: Social Media)

: पहाड़ की महिलाओं की जिंदगी पहाड़ जैसी चुनौतियों से भरी है। एक वक्त था जब उत्तरकाशी के गांव में रहने वाली सावित्री सेमवाल भी इन्हीं चुनौतियों से लड़ रही थी। महज दस साल की उम्र में उनकी शादी हो गई, लेकिन आपको जानकर हैरत होगी की अब पहाड़ की ये महिला अमेरिका में आयोजित सभाओं को संबोधित कर रही है, पूरी दुनिया में पहाड़ी महिलाओं के दुख-तकलीफ और दर्द को पहुंचाने का जरिया बन गई है सावित्री...कल तक सावित्री सेमवाल की छवि छमरोटा गांव के आशा कार्यकर्ता के तौर पर थी, लेकिन अब पहाड़ की ये जीवट महिला अमेरिका के चार शहरों शहरों बोस्टन, शिकागो, कैलिफोर्निया व न्यूयार्क में सभाओं को संबोधित कर सेलिब्रेटी बन चुकी है। सावित्री ने 15 मार्च से 30 मार्च के बीच अमेरिका के शहरों में हुई सभा में अपने विचार रखे, इस दौरान उन्होंने अपनी जिंदगी के संघर्षों की गाथा सैकड़ों विदेशियों के सामने बताई। ठेठ गंवई अंदाज में जब सावित्री ने हिंदी में अपने विचार रखने शुरू किए तो सुनने वाले भी हतप्रभ रह गए।

ये भी पढ़ें:

मंच से उतरते ही विदेशी मीडिया ने उन्हें घेर लिया तभी उन्हें मालूम चला कि स्वामी विवेकानंद की शिकागो यात्रा की 125वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसी मंच से भाषण दिया था। अपने संबोधन में सावित्री ने कहा कि भारत की महिलाओं में स्वास्थ्य जाकरुकता की कमी है। यही वजह है कि आज भी सुदूर पर्वतीय इलाकों में इलाज के अभाव में जच्चा-बच्चा की मौत हो जाती है। वो अभी आशा कार्यकर्ता के तौर पर काम कर रही हैं, जच्चा-बच्चा की जिंदगी बचाना ही उनकी जिंदगी का मकसद है। पहाड़ से लेकर अमेरिका तक का सफर करने वाली सावित्री की जिंदगी खुद संघर्षों की मिसाल है। उनका जन्म जौनसार के थंता गांव में हुआ, साल 1991 में उनकी शादी छमरोटा गांव में रहने वाले रामप्रसाद सेमवाल से हो गई, उस वक्त सावित्री की उम्र केवल 10 साल थी, वो तो शुक्र है कि ससुराल वाले अच्छे थे इसीलिए सावित्री हाईस्कूल तक की पढ़ाई कर सकीं।

ये भी पढ़ें:

सावित्री कि जिंदगी साल 1998 में उस वक्त बदल गई, जब उनके सामने ही एक प्रसव पीड़िता की मौत हो गई। फिर तो उन्होंने ठान लिया कि चाहे कुछ हो जाए वो अपने स्वास्थ्य की नियमित तौर पर जांच कराएंगी। साल 2007 में सावित्री आशा कार्यकर्ता बन गईं। सावित्री बताती हैं कि काम के दौरान मेरा संपर्क अमेरिकन-इंडियन फाउंडेशन और आंचल चेरिटेबल ट्रस्ट के सहयोग से संचालित मेटरनल एंड न्यू बोर्न सर्वाइवल इनीशिएटिव (मानसी) से हुआ। अमेरिकन-इंडियन फाउंडेशन के मेरे काम को परखने के बाद मुझे अमेरिका बुलाया गया। तब शहरों के नाम पर मैंने सिर्फ देहरादून को ही देखा था। अपने काम के दम पर नई पहचान गढ़ चुकीं सावित्री की मुहिम का ही असर है कि अब उनके क्षेत्र में 90 फीसदी डिलीवरी अस्पतालों में होती है। सावित्री एचबीएनबीसी (होम बेस्ड न्यू बोर्न केयर) का प्रशिक्षण भी ले चुकी हैं। कल तक जिस सावित्री ने शहरों के नाम पर केवल देहरादून देखा था आज वो अपनी मेहनत और आत्मविश्वास के दम पर अमेरिका तक का सफर तय कर चुकी हैं...संसाधन ना होने का रोना रोने की बजाय सावित्री ने अपनी मेहनत के दम पर कुछ कर दिखाने की ठानी...और पहाड़ की लाखों महिलाओं के लिए मिसाल बन गईं...इस जीवट पहाड़ी महिला को हमारा सलाम।