उत्तराखंड forest fire in uttarakhand

पहाड़ में गर्मी शुरू होते ही धधक उठे हैं हरे-भरे जंगल, जाने कब जागेगा प्रशासन

गर्मी बढ़ने के साथ ही उत्तराखंड के जंगल धधकने लगे हैं। ग्रामीण डरे-सहमे हैं...पर प्रशासन जागने का नाम ही नहीं ले रहा।

पर्यावरण: forest fire in uttarakhand
Image: forest fire in uttarakhand (Source: Social Media)

: वन संपदा उत्तराखंड की अमूल्य धरोहर है। पहाड़ों को हरा-भरा रखने और पर्यावरण को बचाने के लिए यहां के लोगों ने कई आंदोलन किए हैं, अपने खून-पसीने से पौधों को सींचा है, तब कहीं जाकर पहाड़ों पर हरियाली छाई है, लेकिन इन दिनों पहाड़ के साथ-साथ हमारे वन क्षेत्र भी खतरे में हैं। गर्मी का मौसम शुरू होते ही पहाड़ों में जंगल धधकने लगे हैं। जंगलों में लगी आग की आंच शहरों तक में महसूस की जा रही है। हर साल प्रशासन दावे करता है कि जंगलों को बचाया जाएगा, पर्यावरण को संरक्षित किया जाएगा, लेकिन जब काम करने की बारी आती है तो ये सारे दावे हवा हो जाते हैं। इन दिनों पहाड़ों में....गांवों में हर तरफ धुआं ही धुआं है, पेड़ झुलस रहे हैं, और ये बेजुबान तो किसी से मदद भी नहीं मांग सकते।

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उत्तराखंड में फायर सीजन 5 फरवरी से शुरू हो चुका है। फरवरी से लेकर अब तक वन क्षेत्रों में आग लगने की 39 घटनाएं सामने आ चुकी हैं, अब आप खुद ही समझ सकते हैं कि हालात कितने खराब हैं। जंगल में आग लगने के सबसे ज्यादा मामले राजधानी देहरादून में सामने आए हैं, अब जब राजधानी में ही जंगल सुरक्षित नहीं हैं तो दूसरे क्षेत्रों के क्या हाल होंगे इसका अंदाजा आप खुद लगा लीजिए। दूसरे क्षेत्रों की बात करें तो अल्मोड़ा में 4, पिथौरागढ़ में 3 और चंपावत-चमोली में जंगल में आग लगने के 2-2 मामले सामने आए हैं। दावानल उत्तराखंड की कुल 41 .185 हेक्टयेर जमीन को निगल चुका है, जंगल में लगी आग में 6 मवेशी जिंदा जल गए...पर प्रशासन है कि जागने का नाम नहीं ले रहा। बता दें कि पिछले साल 4538 .23 हेक्टयेर जमीन को आग ने अपनी चपेट में ले लिया था, जंगल में लगी आग ने पिछले दस सालों का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। इससे पहले साल 2017 में 1251 .64 हेक्टयेर जमीन आग की भेंट चढ़ गई थी। हर साल जंगलों में आग लगने की घटनाएं होती हैं, लेकिन प्रशासन है कि सुध नहीं ले रहा। कई गांवों में ग्रामीण खुद जंगलों को बचा रहे हैं, पर जंगलों को बचाने की जिम्मेदारी क्या केवल ग्रामीणों की है...क्या सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। प्रशासन और सरकार अब भी नहीं जागी तो वो दिन दूर नहीं जब उत्तराखंड के घने जंगल, ठंडी हवा, पानी के सोते केवल कहानियों की किताबों में सिमटकर रह जाएंगे।