उत्तरकाशी: आपदा को अवसर में कैसे बदलना है, ये कोई उत्तरकाशी के टीकाराम पंवार से सीखे। टीकाराम ने लिंगुड़ा के अचार को रोजगार का जरिया बनाया और इसके जरिए कई लोगों को रोजगार से जोड़ा। टीकाराम अब तक 50 किलो से ज्यादा अचार बना चुके हैं, जो बाजार में हाथों हाथ बिक रहा है। लिंगुड़ा के एक किलो अचार की कीमत 250 रुपये है। टीकाराम लिंगुड़ा का अचार बनाकर आत्मनिर्भर बन गए हैं, साथ ही उन्होंने कई ग्रामीणों को रोजगार भी दिया है। विदेश में शेफ की नौकरी से लेकर गांव में स्वरोजगार तक का उनका सफर बेहद दिलचस्प रहा। टीकाराम दुबई में शेफ की नौकरी करते थे। कमाई भी अच्छी थी, लेकिन कोरोना महामारी के चलते उन्हें जॉब छोड़कर ठांडी गांव लौटना पड़ा। टीकाराम के लिए आगे की जर्नी बेहद मुश्किल थी। वो समझ नहीं पा रहे थे कि गांव में रहकर क्या किया जाए। इसी बीच उन्हें लिंगुड़ा से अचार बनाने का आइडिया आया।
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टीकाराम ने लिंगुड़े से अचार की रेसेपी तैयार की। हुनर तो था ही, इसलिए काम में सफलता भी मिलने लगी। उनके बनाए लिंगुड़े के अचार को लोगों ने खूब पसंद किया। अचार की डिमांड बढ़ने लगी साथ ही टीकाराम का काम भी। 12 मई को गांव लौटने के बाद से अब तक वो 50 किलो से ज्यादा अचार तैयार कर चुके हैं। जो बाजार में ढाई सौ रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिक रहा है। टीकाराम कहते हैं कि लिंगुड़ा पौष्टिकता से भरपूर है। बचपन में हमने इसकी सब्जी खूब खाई है, इसलिए मैंने सोचा क्यों ना लिंगुड़ा का अचार बनाया जाए। पहाड़ में नदी-नालों के पास मिलने वाले लिंगुड़ा की सब्जी और अचार स्वादिष्ट होता है। गांव में बने अचार को बाजार मुहैया कराने में जाड़ी संस्थान के अध्यक्ष द्वारिका सेमवाल ने टीकाराम की मदद की।
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पहाड़ में लिंगुड़ा की सब्जी खूब पसंद की जाती है। लिंगुड़ा नमी वाली जगहों पर मार्च से जुलाई के बीच खूब उगता है। इसमें कैल्शियम, आयरन, पोटेशियम, प्रोटीन और विटामिन-सी जैसे मिनरल और विटामिन मिलते हैं। दुनियाभर में इसकी 400 से ज्यादा प्रजातियां हैं। इन दिनों गांव के लोग लिंगुड़ा तोड़कर बाजार पहुंचा रहे हैं, जिससे उन्हें अच्छी आमदनी हो रही है। लिंगुड़ा प्राकृतिक रूप से उगता है। इसे उगाने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती। पहाड़ी लिंगुड़ा की सब्जी को टीकाराम ने नए अंदाज में पेश किया, जिसे लोग खूब पसंद कर रहे हैं। अब टीकाराम दूसरे पहाड़ी उत्पादों को भी नए रूप में पेश करने की योजना बना रहे हैं, ताकि गांव में रहकर ही रोजगार के अवसर पैदा किए जा सकें।