उत्तराखंड देहरादूनReport on the participation of women in the politics of Uttarakhand

उत्तराखंड की राजनीति में महिलाओं का कितना दम-खम? कहां रह गई कमी? पढ़िए रिपोर्ट

उत्तराखण्ड एक ऐसा पर्वतीय राज्य है जो एक लम्बे संघर्ष के बाद मिला। इस संघर्ष में सिर्फ पुरुषों ने ही नहीं बल्कि महिलाओं ने भी अपना पूर्ण योगदान दिया।

Uttarakhand Politics: Report on the participation of women in the politics of Uttarakhand
Image: Report on the participation of women in the politics of Uttarakhand (Source: Social Media)

देहरादून: आज उत्तराखण्ड राज्य को बने 20 वर्ष से भी ज़्यादा का समय हो चुका है। आज भी उत्तराखण्ड की महिलाओं का जीवन दिन-ब-दिन एक संघर्ष से गुज़रता रहता है। सदियों से ऐसा चल रहा है। पारिवारिक व सामाजिक ज़िम्मेदारियों ने उसे इतना सशक्त कर दिया कि वो अब आर्थिक क्षेत्र के साथ-साथ राजनैतिक क्षेत्र में भी पुरुषों के बराबर आने के प्रयास में लगी हुई हैं। ये प्रयास सफल लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ज़रूरी भी है। उत्तराखण्ड भौगोलिक रूप से दो हिस्सों में बंटा हुआ है पहाड़ी और तराई। दोनों क्षेत्रों की जीवन शैली एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न है। पहाड़ी क्षेत्रों में देखा जाए तो कठिन जीवन जीते हुए यहाँ के सामाजिक मूल्यों को ज़िंदा रखने में महिलाओं का बड़ा योगदान है क्योंकि ज़्यादातर पुरुष पहाड़ों से पलायन कर चुके हैं। जंगल के काम हों या खेती के काम परिवार की ज़िम्मेदारी हों या मवेशियों की ज़िम्मेदारी महिलाएं ही ज़्यादातर मोर्चा संभाले दिखती हैं। आज पहाड़ पर महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी पर दृष्टि दौड़ाएं तो उनकी भागीदारी सिर्फ महिला आरक्षित सीटों पर ही ज़्यादा देखने को मिलती है, बाकि जगह पुरुषों का ही वर्चस्व है। आगे पढ़िए

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उत्तराखण्ड के तराई क्षेत्रों में देखा जाए तो यहाँ महिलाओं का जीवन पहाड़ से थोड़ा सरल है और यहाँ आर्थिक रूप से संपन्न घरों की महिलाएं राजनीति में आने लगी हैं। तराई में भी कमोबेश महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी आरक्षित सीटों पर ही ज़्यादा देखने को मिलती है। यानि ये कहा जा सकता है कि राजनीतिक तौर पर पहाड़ की महिलाओं और तराई की महिलाओं में बहुत ज़्यादा अंतर नहीं दिखता है। किसी भी राज्य में विधानसभा चुनाव सबसे बड़े चुनाव मानें जाते हैं। वर्तमान में उत्तराखण्ड के पास 70 विधानसभाओं में मात्र 04 महिला विधायक हैं, यानि मात्र 6 प्रतिशत। 2017 विधानसभा चुनाव पर नज़र डालें तो ये चुनाव मुख्य तौर पर दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों के बीच लड़ा गया बीजेपी बनाम कांग्रेस। जहाँ बीजेपी ने 05 महिलाओं को अपना उम्मीदवार बनाया वहीं कांग्रेस ने 08 महिलाओं को टिकट दिया। इसी विषय पर उत्तराखण्ड के दो राजनैतिक दलों की वरिष्ठ महिलाओं से उनकी राय जानी, जिन्होंने जीवन के कई उतार-चढ़ाव के बाद अपना राजनैतिक मुकाम हासिल किया।
आशा नौटियाल (पूर्व विधायक बीजेपी, केदारनाथ विधानसभा) कहती हैं..."पंचायत स्तर पर महिलाओं की राजनीतिक उपस्थिति है, लेकिन विधानसभा/लोक सभा जैसे बड़े चुनावों में पुरुषों का वर्चस्व है। महिला जब राज्य बनाने के लिए किये जा रहे संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं तो उन्हें राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। राजनीतिक दलों को महिलाओं पर भरोसा कर उनकी राजनैतिक भूमिका तय करनी चाहिए।"
सरिता पुरोहित (केन्द्रीय उपाध्यक्ष, उत्तराखण्ड क्रान्ति दल एवं राज्य आन्दोलनकारी) कहती हैं..."महिलाओं को प्रत्यक्ष (राजनीतिक तौर पर) और अप्रत्यक्ष (मतदाता के तौर पर) ज़्यादा से ज़्यादा आना चाहिए। महिलाओं को छात्रा जीवन से ही राजनीतिक समझ रखनी शुरू कर देनी चाहिए। परिवार को राजनीति में जाने वाली महिला को सहयोग करना चाहिए। राजनीतिक दलों और जनता को महिलाओं पर भरोसा रखना चाहिए।" आगे पढ़िए

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अधिकांश महिलाओं का मानना है कि रूढ़िवादी सामाजिक ढांचा महिलाओं को राजनीति में असफल करता है। सांस्कृतिक प्रतिबंधों में पर्दा प्रथा, किसी अन्य पुरुष से बातचीत न करना आदि अहम कारण हैं। घरेलू जिम्मेदारियों के रहते भी महिलाओं को राजनीति में पुरुषों की तुलना में पारिवारिक सहयोग कम मिलता है। राजनीतिक दल भी किसी कुंठा से ग्रसित नज़र आते हैं क्यों कि यहाँ भी महिलाओं की तुलना में पुरुषों को चुनावी प्रत्याशी ज़्यादा बनाया जाता है। अगर मतदाताओं का आंकड़ा देखा जाए तो मतदाता भी महिला उम्मीदवारों की तुलना में पुरुष उम्मीदवारों के पक्ष में अधिक मत देते हैं। ये सब इसलिए है क्योंकि महिलाओं को घरों में राजनीतिक निर्णय लेने में कम स्वायत्तता है या फिर है ही नहीं। जिसके कारण उन्हें चुनाव से पहले ही अयोग्य समझ लिया जाता है और वो वोट जुटाने में सक्षम नहीं हो पाती हैं। उत्तराखण्ड में पिछले कुछ वर्षों में मतदाता के रूप में महिलाओं की भूमिका बढ़ी है साथ ही देखा गया है कि इसके अलावा महिलाएं अपनी राजनैतिक पसंद को लेकर भी स्वतंत्र हो रही हैं। किंतु अभी यह प्रचलन शिक्षित महिलाओं में ही अधिक देखा गया। कम पढ़े लिखे पुरुषों के सापेक्ष अधिक पढ़ी लिखी महिलाओं की राजनीति में दखलंदाज़ी भी वर्तमान राजनीति में लैंगिक संघर्ष का कारण बनती जा रही है। महिला अगर राजनीति में आधी दुनिया का हक़ लेकर आती है और पुरुषों के समकक्ष बराबरी के साथ खड़ी होती है तो राजनीति का स्वरूप बदलेगा। क्योंकि महिला के अंदर जो सामाजिकता, व्यवहारिकता,सत्य-असत्य के आंकलन का एक नैसर्गिक ज्ञान होता है उससे राजनीति में एक शुचिता पैदा होगी। "महिलाएं राजनीति में ख़त्म हो रही संवेदना को जीवित करने की एक उम्मीद हैं।"